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मंगलवार, 20 मार्च 2018

कभी मेरे घर भी आना गौरैया! - आबिद सुरती

कहां गई गौरैया? क्यों नहीं दिखती गौरैया? सवाल और भी हैं। सवाल सबके लिए हैं। हम पहली बार जिस पक्षी से परिचित हुए थे, वह गौरैया थी। जिस पक्षी के लिए आंगन में अनाज के दाने बिखेरे जाते थे, वह थी गौरैया। लोकगीतों में जिस पक्षी का वर्णन सबसे पहले और ज्यादा मिलता था, वह थी गौरैया। लेकिन अब हम सबकी प्यारी गौरैया घर आंगन में चहकती नहीं दिखती। यह पर्यावरण का नहीं, संस्कृति का भी संकट है। 
कभी मेरे घर भी आना गौरैया!
साल 2013 की बात है। मुझे पानी बचाने के लिए स्पैरो अवॉर्ड दिया गया था। इसके बाद मैंने गौरैया के संरक्षण को लेकर काम करने वाले लोगों के साथ भी काम किया। महाराष्ट्र में जो लोग इस अभियान को लेकर काम कर रहे हैं, उनसे मैं कई बार मिला। इस दौरान कई बातें पता चलीं। मैं एक बात मानता हूं कि चींटी से लेकर हाथी तक हर जीव-जंतु जिसे प्रकृति ने बनाया है, वह धरती के संतुलन के लिए जरूरी है। गौरैया भी इन्हीं में से एक है। उसकी संख्या का धीरे-धीरे कम होते जाना, संतुलन के लिए हानिकारक ही नहीं, हमारे जीवन के लिए खतरनाक भी है। इसकी सबसे बड़ी वजह है हमारे रहन-सहन का बदलना। हमने अपनी जीवनशैली इस तरह बदल ली है कि उसमें गौरैया के लिए जगह ही नहीं बची है। जबकि एक समय ऐसा था जब सूरज निकलने से नहीं सुबह का पता गौरैया की चहचहाट से चलता था। आंगन में झुंड के झुंड नजर आते थे। मगर अब एक भी गौरैया का दिखना दुर्लभ हो गया है। मैं खुद यहां मुंबई में 1995 से हूं। 10-15 साल पहले हर तरफ नजर आती थी गौरैया, अब कहीं नहीं दिखती। तब में और अब में फर्क यह भी आया है कि पहले के समय में आर्किटेक्चर ही ऐसा होता था कि उसमें चिड़िया के लिए भी जगह बनाई जाती थी। झरोखे होते थे, जिनसे चिड़िया घर में आ सकती थी। आले होते थे, जिनमें वह घोंसला बना सकती थी। अब हम घर भी पश्चिम की तर्ज पर बना रहे हैं। सीमेंट के घर बनने से भी काफी नुकसान हुआ है। चारों तरफ से घिरे हुए सीमेंट के घरों की वजह से अब चिड़िया को धूल नहीं मिल रही, न खेलने के लिए न नहाने के लिए। चिड़िया रेत में सिर्फ खेलती ही नहीं हैं, नहाती भी है। इसे सैंड बाथ कहा जाता है। लेकिन आजकल के घरों में कहीं ऐसा कोई स्पेस नहीं है कि पक्षी चोंच भी मार सके। मैं कुछ समय पहले गुड़गांव गया था, तो मुझे लगा सैन फ्रांसिस्को पहुंच गया हूं। कहीं भारत की कोई छवि ही नहीं थी। हर तरफ कांच की इमारतें। अब हम कांच की इमारतें बनाएंगे, तो चिड़िया कहां से आएगी ! गौरैया की संख्या कम होने के पीछे सबसे बड़े जिम्मेदार आर्किटेक्ट हैं। साउथ मुंबई का उदाहरण दूं, तो वहां कई हेरिटेज बिल्डिंगें हैं। वहां जाता हूं, तो गौरैया दिखती हैं। लेकिन बाकी जगह शीशे के बड़े-बड़े टावर हैं, वहां चिड़िया कहीं नजर नहीं आती। हमारे देश के आर्किटेक्ट्स को यह महसूस होना चाहिए कि वे चिड़िया को मार रहे हैं और हमें चिड़िया के लिए कुछ करना चाहिए।  

मॉडर्न टेक्नोलॉजी ने भी गौरैया का बहुत नुकसान किया है। मोबाइल टॉवरों का रेडिएशन भी चिड़िया के लिए बहुत खतरनाक होता है। चिड़िया कई बार उसी में मर जाती हैं। उसका रेडिएशन चिड़िया के लिए बहुत खतरनाक होता है। 

जीवनशैली का एक और बदलाव है, जिसने चिड़िया को हमसे दूर किया है। पहले के समय में परचून की दुकानें हुआ करती थीं। उनमें गेहूं की बोरियां होती थीं। चिड़िया आकर उनमें बैठती थी। अनाज के दाने चुगती थी। अब मॉल कल्चर आ गया है। सब कुछ पैक हो गया है। हमने उसके रहने और रुकने की जगह भी छीन ली और उसके खाने का सामान भी, तो गौरैया कहां आएगी और क्यों आएगी? हमने अब ऐसी जीवनशैली विकसित कर ली है, कि चिड़िया के आने के सारे रास्ते बंद कर दिए हैं। 


हम अपनी जिंदगी में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि गौरैया के बारे में सोचने का वक्त नहीं मिलता। मगर सोचने वाली बात तो है ही कि एक चहचहाहट हमारी जिंदगी से अब गायब हो चुकी है। ये बात कभी-कभी बहुत अखरती है। 

अब हमें यह देखना चाहिए कि गौरैया को बचाने के लिए क्या किया जा सकता है? कम से कम हम उसके पानी पीने का इंतजाम तो कर सकते हैं। इसके लिए खिड़की पर या बालकनी में एक मिट्टी के बर्तन में थोड़ा पानी और प्लेट में दाना रख दें। दूसरा यह भी हो सकता है कि आजकल कंदील की तरह ही चिड़िया के घर भी बाजार में बिक रहे हैं। आप अपने घर के बाहर अगर उसे लटका दें, तो चिड़िया उसमें घर बनाएगी। उसमें आप दाना भी रख दें। पानी भी रख दें। सरकारी स्तर पर भी इसे लेकर प्रयास किए जा सकते हैं। इसमें सबसे पहला काम मैपिंग का हो सकता है। हर शहर में नगरपालिका को गौरैया की मैपिंग की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। ताकि ये पता लगाया जा सके कि कहां और अब कितनी गौरैया हैं। कहीं कम हो रही हैं, तो वजह क्या है? ये काम बड़े पैमाने पर होना चाहिए।
विश्व गौरैया दिवस पर विशेष कभी मेरे घर भी आना गौरैया!
विश्व गौरैया दिवस पर विशेष
हम अपनी जिंदगी में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि गौरैया के बारे में सोचने का वक्त नहीं मिलता होगा। मगर सोचने वाली बात तो है ही कि एक चहचहाहट हमारी जिंदगी से अब गायब हो चुकी है। ये बात कभी-कभी बहुत अखरती है और उसका नकारात्मक असर भी होता है। 

गौरैया को बचाने के लिए एक बात पर और ध्यान देना चाहिए। हम ज्यादा से ज्यादा भारतीय पेड़-पौधे लगाएं। आजकल ज्यादा से ज्यादा डेकोरेटिव प्लांट्स और विदेशी पेड़ लगाने का चलन है। हमारी चिड़िया के लिए इन पेड़-पौधों के कोई मायने नहीं है। वह इन पर घोंसला नहीं बना पाती है। मेहंदी जैसे पेड़ गौरैया के लिए जरूरी हैं। इन पेड़ों पर ऐसे कीड़े पनपते हैं, जिन्हें गौरैया खाती है। इससे वह यहां घोंसला भी बना सकती है और उसे अपनी खुराक भी मिल जाती है। ये कीड़े चिड़िया की परवरिश के लिए बहुत जरूरी हैं। पैदा होने से लेकर चंद महीनों तक उसे इन कीड़ों की खुराक चाहिए ही चाहिए। सरकारी स्तर पर जो भी हो, एक कोशिश हमें अपने स्तर पर अपने घर से कर देनी चाहिए।  


कभी मेरे घर भी आना गौरैया! - आबिद सुरती
आबिद सुरती 
पर्यावरणविद, कार्टूनिस्ट और लेखक

साभार :- अमर उजाला, मनोरंजन, 19 मार्च, 2017 ई.

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