साभार : Encyclopedia Britannica |
इसकी विलुप्ति के पीछे अनगिनत कारण हैं। सबसे पहला कारण तो यही है कि आदमी में प्रकृति और इसके प्रति भावनात्मक जुड़ाव का अभाव और उसके रहन-सहन के तरीकों में बदलाव आया है। नए-नए तरीकों के बनते बहुमंजिला मकानों की वजह से गौरैया के लिए अपने घोंसले बनाने की जगह ही नहीं रही। घर की ्त्रिरयों द्वारा गेहूं भिगोकर आंगन में सुखाने की प्रवृत्ति के ह्रास के चलते गौरैया ने घरों से मुंह मोड़ लिया। देश में दिन-ब-दिन बढ़ती टावर संस्कृति और पर्यावरण प्रदूषण के कारण भी इनकी संख्या कम हो रही है। दरअसल, बढ़ते मोबाइल टावरों के विकिरण के कुप्रभाव से गौरैया के मस्तिष्क व उनकी प्रजनन क्षमता पर घातक असर पड़ा है। साथ ही वे दिशा भ्रम की शिकार होती हैं, सो अलग।
गौरैया की संख्या सिमटते जाने की एक बड़ी वजह विकसित व विकासशील देशों में बिना सीसा वाले पेट्रोल का चलन है। इनके जलने से उत्पन्न होने वाले मिथाइल नाइट्रेट नामक जहरीले यौगिक से छोटे-मोटे कीड़े-मकोड़े खत्म हो जाते हैं। ये गौरैया को बेहद प्रिय हैं, जिन्हें वे बड़े चाव से खाती हैं। जब वे उसे खाने को ही नहीं मिलेंगे, तो वे जिएंगी कैसे? बढ़ते शहरीकरण, कंक्रीट की ऊंची इमारतों और जीवन की आपाधापी के बीच आज व्यक्ति के पास इतना समय ही नहीं है कि वह अपनी छतों पर कुछ जगह ऐसी भी छोड़े, जहां पक्षी अपने घोंसले बना सकें। यदि लोग बचे हुए अन्न के दानों को नालियों, सिंक में बहने से बचाएं और उनको छत की खुली जगह पर डाल दें, तो उनसे गौरैया अपनी भूख मिटा सकती है। पर आधुनिक भवन संरचना में दाने सीधे नालियों में गिरते हैं।
आज सत्ता में बैठे लोगों में शायद ही कोई ऐसा हो, जो पशु-पक्षियों के प्रति संवेदनशील नजरिया रखता हो, उनके बारे में कुछ जानकारियां रखता हो, उन्हें पहचानता हो। इस मामले में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जितनी भी प्रशंसा की जाए, वह कम है। एक बार भरतपुर प्रवास के दौरान उन्होंने केवलादेव पक्षी विहार में तकरीबन 80 चिड़ियों को उनके नाम से पहचानकर सबको चौंका दिया था। हमारे यहां ‘नेचर फॉरएवर सोसाइटी’ के संस्थापक दिलावर मोहम्मद खान अकेले ऐसे शख्स हैं, जो बीते डेढ़ दशक से गौरैया को बचाने के अभियान में लगे हैं।
देखा जाए, तो गौरैया को बचाने के आज तक किए गए सभी प्रयास नाकाम साबित हुए हैं। ‘हेल्प हाउस स्पैरो’ नाम से समूचे विश्व में चलाए जाने वाले अभियान में हमारी सरकार की ओर से कोई सकरात्मक पहल नहीं की गई। यहां तक कि गौरैया को बचाने की दिशा में सरकार ने न कोई कार्यक्रम बनाया और न ही बाघ, शेर, हाथी की तरह कोई प्रोजेक्ट बनाने पर ही विचार हुआ। देश में पहले ही जीव-जंतुओं-पक्षियों की हजारों प्रजातियों के अस्तित्व पर संकट है, उसमें गौरैया और शामिल हो जाएगी, तो सरकार पर कोई खास फर्क पड़ने वाला नहीं। मगर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली का तो यह राजकीय पक्षी है। दुख यह है कि इस बारे मेें सब मौन हैैं। ऐसे में, गौरैया आने वाले समय मेे सिर्फ किताबों में रह जाए, तो क्या आश्चर्य!
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
- ज्ञानेंद्र रावत
पर्यावरण कार्यकर्ता
साभार : हिन्दुस्तान दैनिक | मुरादाबाद | शनिवार | 24 जून 2017 | कॉलम - नजरिया | पेज संख्या - 12
बढ़िया आलेख।
जवाब देंहटाएंयह पोस्ट आज की बुलेटिन ईद मुबारक और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल है।
जवाब देंहटाएंअच्छा आलेख
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत खूब , मंगलकामनाएं गौरैया को
जवाब देंहटाएंगोरैया की संख्या में कमी आने के कई कारण हो सकते हैं.रहन-सहन के टूर तरीकों में बदलाव तथा कीटनाशकों का बढ़ता प्रयोग भी एक कारण हो सकता है.आजकल मुझे गोरैया से कुछ बड़ी चिड़िया अक्सर दिखाई देती है,DTH के एंटीना पर बैठी हुई,पता नहीं इसी कि कोई प्रजाति है या कुछ और.
जवाब देंहटाएंसार्थक आलेख हर्ष !
गौरियाँ के लायक बहुत ख़ूबसूरत हरा भरा लैन है मेरे पास पर गौरियाँ छोड़ कर बहुत तरह की चिड़िया गिलहरी रहती है ..अभी कुछ दिनो पहले मेरे आँगन के गमले में बुलबुल ने अपना घोंसला बनाया .. इस घटना का पूरी कहानी की तरह मैंने अपने फ़ेसबुक वाल पर पोस्ट भी किया...हमने उस बुलबुल के परिवार को भरपूर संरक्षण दिया उसके तीन बच्चे सकुशल वहाँ से अपने अपने गंतव्य को गये ..पर ग़ौरया ही नहीं है ..😒
जवाब देंहटाएंअब शायद का गाँव मे भी नही दिखती । ऐसी प्रजाति के विलुप्त होने की परवाह किसको ??
जवाब देंहटाएंमुझे याद है एक दशक पहले मेरे घर के आंगन में जब माँ चावल निछारने के लिए सुप लेकर बैठती,इनकी झुंड अपनी हाजिरी लगा जाता, सचमुच उस समय देखकर बहुत अच्छा लगता । गौरैया का आना शुभ माना जाता है।
अच्छा आलेख
जवाब देंहटाएंअमूल्य !
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