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शनिवार, 24 जून 2017

तब सिर्फ किताबों में मिला करेगी गौरैया

Only Sparrows will be found in books तब सिर्फ किताबों में मिला करेगी गौरैया
साभार : Encyclopedia Britannica
मुझे आज से पांच दशक पहले का समय याद आता है, जब घर के आंगन में गौरैया बेखौफ फुदकती थी और घर वालों को उसका फुदकना, चहचहाना बहुत भाता था। उसकी चहचहाहट को घर के लिए शुभ माना जाता था, लेकिन आज उसी गौरैया के दर्शन दुर्लभ हो गए हैं। ऐसा लगता है कि उनके बिना घर का आंगन सूना है। भारत, यूरोप, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और कई अमेरिकी देशों में पाई जाने वाली गौरैया अब कस्बों और गांवों से भी लुप्त हो चुकी हैं। यदि कहीं कभी उसके दर्शन हो गए, तो आप अपने को खुशकिस्मत समझिए। हमारे देश में पक्षियों की तादाद जानने-बताने के लिए मुंबई में ‘बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी’ (बीएनएचएस) और ‘सलीम अली सेंटर फॉर ऑर्निथोलॉजी ऐंड नेचुरल हिस्ट्री’ हैं। लेकिन विडंबना यह है कि इन केंद्रों के पास गौरैया से संबंधित कोई जानकारी नहीं है। सरकार के पास भी नहीं है। यूरोप में चिड़ियों-पक्षियों की संख्या की जानकारी के लिए एक पूरा तंत्र है, पर दुखद है कि गौरैया के बारे में वह भी नाकाम साबित हुआ है। यदि बीते वर्षों के कुछ निजी आकलनों पर गौर करें, तो पता चलता है कि वहां कुछेक वर्षों में गौरैया की तादाद में तकरीबन 85 प्रतिशत की कमी आई है।

इसकी विलुप्ति के पीछे अनगिनत कारण हैं। सबसे पहला कारण तो यही है कि आदमी में प्रकृति और इसके प्रति भावनात्मक जुड़ाव का अभाव और उसके रहन-सहन के तरीकों में बदलाव आया है। नए-नए तरीकों के बनते बहुमंजिला मकानों की वजह से गौरैया के लिए अपने घोंसले बनाने की जगह ही नहीं रही। घर की ्त्रिरयों द्वारा गेहूं भिगोकर आंगन में सुखाने की प्रवृत्ति के ह्रास के चलते गौरैया ने घरों से मुंह मोड़ लिया। देश में दिन-ब-दिन बढ़ती टावर संस्कृति और पर्यावरण प्रदूषण के कारण भी इनकी संख्या कम हो रही है। दरअसल, बढ़ते मोबाइल टावरों के विकिरण के कुप्रभाव से गौरैया के मस्तिष्क व उनकी प्रजनन क्षमता पर घातक असर पड़ा है। साथ ही वे दिशा भ्रम की शिकार होती हैं, सो अलग।

गौरैया की संख्या सिमटते जाने की एक बड़ी वजह विकसित व विकासशील देशों में बिना सीसा वाले पेट्रोल का चलन है। इनके जलने से उत्पन्न होने वाले मिथाइल नाइट्रेट नामक जहरीले यौगिक से छोटे-मोटे कीड़े-मकोड़े खत्म हो जाते हैं। ये गौरैया को बेहद प्रिय हैं, जिन्हें वे बड़े चाव से खाती हैं। जब वे उसे खाने को ही नहीं मिलेंगे, तो वे जिएंगी कैसे? बढ़ते शहरीकरण, कंक्रीट की ऊंची इमारतों और जीवन की आपाधापी के बीच आज व्यक्ति के पास इतना समय ही नहीं है कि वह अपनी छतों पर कुछ जगह ऐसी भी छोड़े, जहां पक्षी अपने घोंसले बना सकें। यदि लोग बचे हुए अन्न के दानों को नालियों, सिंक में बहने से बचाएं और उनको छत की खुली जगह पर डाल दें, तो उनसे गौरैया अपनी भूख मिटा सकती है। पर आधुनिक भवन संरचना में दाने सीधे नालियों में गिरते हैं।

आज सत्ता में बैठे लोगों में शायद ही कोई ऐसा हो, जो पशु-पक्षियों के प्रति संवेदनशील नजरिया रखता हो, उनके बारे में कुछ जानकारियां रखता हो, उन्हें पहचानता हो। इस मामले में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जितनी भी प्रशंसा की जाए, वह कम है। एक बार भरतपुर प्रवास के दौरान उन्होंने केवलादेव पक्षी विहार में तकरीबन 80 चिड़ियों को उनके नाम से पहचानकर सबको चौंका दिया था। हमारे यहां ‘नेचर फॉरएवर सोसाइटी’ के संस्थापक दिलावर मोहम्मद खान अकेले ऐसे शख्स हैं, जो बीते डेढ़ दशक से गौरैया को बचाने के अभियान में लगे हैं।

देखा जाए, तो गौरैया को बचाने के आज तक किए गए सभी प्रयास नाकाम साबित हुए हैं। ‘हेल्प हाउस स्पैरो’ नाम से समूचे विश्व में चलाए जाने वाले अभियान में हमारी सरकार की ओर से कोई सकरात्मक पहल नहीं की गई। यहां तक कि गौरैया को बचाने की दिशा में सरकार ने न कोई कार्यक्रम बनाया और न ही बाघ, शेर, हाथी की तरह कोई प्रोजेक्ट बनाने पर ही विचार हुआ। देश में पहले ही जीव-जंतुओं-पक्षियों की हजारों प्रजातियों के अस्तित्व पर संकट है, उसमें गौरैया और शामिल हो जाएगी, तो सरकार पर कोई खास फर्क पड़ने वाला नहीं। मगर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली का तो यह राजकीय पक्षी है। दुख यह है कि इस बारे मेें सब मौन हैैं। ऐसे में, गौरैया आने वाले समय मेे सिर्फ किताबों में रह जाए, तो क्या आश्चर्य!

(ये लेखक के अपने विचार हैं)


ज्ञानेंद्र रावत पर्यावरण कार्यकर्ता
- ज्ञानेंद्र रावत 
पर्यावरण कार्यकर्ता
साभार : हिन्दुस्तान दैनिक | मुरादाबाद | शनिवार | 24 जून 2017 | कॉलम - नजरिया | पेज संख्या - 12

बुधवार, 8 जुलाई 2015

आईबीसीएन तैयार करेगी केरल राज्य के पक्षियों का एटलस

चित्र साभार :- IBCN की फेसबुक वॉल से
इंडियन बर्ड कंजर्वेशन नेटवर्क ( आईबीसीएन ) ने केरल के पक्षियों का वर्गीकरण कर उसका एटलस तैयार करने का निर्णय लिया है। यह किसी भी भारतीय राज्य का पहला बर्ड एटलस होगा। बर्ड एटलस क्षेत्र विशेष में मौजूद पक्षियों की जानकारी देता, साथ ही, यह उस क्षेत्र में पक्षियों के आवागमन और उनकी उपस्थिति का सही रुझान भी बताता है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है, आईबीसीएन पक्षी प्रेमियों और प्रकृति तथा पक्षियों के संरक्षण की दिशा में काम करने वाले कई गैरसरकारी संगठनों का एक नेटवर्क है।

यह बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी ( बीएनएचइस ) का हिस्सा है। वर्ष 1998 में बीएनएचएस ने बर्ड लाइफ इंटरनेशनल और आरएसपीबी ( ब्रिटेन की बर्ड लाइफ ) के सहयोग से आईबीसीएन की स्थापना की थी। इंडियन बर्ड कंजर्वेशन नेटवर्क की गिनती अब देश के बड़े नेटवर्कों में होती है। इसके 700 व्यक्तिगत सदस्य हैं, जबकि 80 सांस्थानिक। यह 2,000 से अधिक पक्षी प्रेमियों को जोड़ने में सफल रहा है।

मंगलवार, 30 जून 2015

पिता के गुण दर्शाने के लिए गीत गाते है नर बुलबुल

पक्षियों के कूकने, चहकने व गीत गाने के पीछे भले ही जो कारण होता हो लेकिन एक नए शोध के अनुसार नर बुलबुल खुद में बेहतर पिता के गुण को दर्शाने के लिए गीत गाता है। जर्मनी के फ्रेई यूनिवर्सिटी की ओर से किए अध्ययन में पाया गया कि बुलबुल में बेहतर गायक अपने बच्चों का बेहतर तरीके से पालन पोषण करेगा।
नर बुलबुल अपनी गायन क्षमता को साथी मादा को दिखाने के लिए अपने गीतों को ज्यादा व्यवस्थित तरीके से बार-बार दोहराता है। नर बुलबुल 180 अलग-अलग प्रकार के गीत गा सकता है। सभी पक्षियों की करीब 80 फीसदी प्रजातियों में नर अपने बच्चों के पालन पोषण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। नर बुलबुल प्रजनन पूर्व अंडों की देखभाल के साथ मादा को खाना खिलाने, बच्चों को भोजन उपलब्ध कराने के साथ ही हिंसक जानवरों से घोंसले की रक्षा करता है। इसलिए अपने साथी का चुनाव करते समय मादा बुलबुल के लिए नर बुलबुल में मौजूद पिता संबंधी गुण काफी अहम हो जाता है।

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